अमेरिकी संस्था ‘लिविंग टॉंग्स इंस्टीट्यूट फॉर इंडेजर्ड लैंग्यूजेज’ के निदेशक ग्रेगरी एंडरसन ने अक्टूबर 2010 के पहले सप्ताह में एक ऐसी बोली के मौजूद होने की जानकारी दुनिया को दी जो पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी इलाके के एक सुदूर गांव किचांग में बोली जाती है। करीब दो साल पहले ग्रेगरी और उनके अमेरिकी साथी के. डेविड हैरिसन रांची विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञानी गणष मुरमु के साथ जब उस गांव में पहुंचे तो उन्हें जो बोली सुनाई पड़ी वह पहली नजर में ‘अक्का’ बोली जैसी लगी लेकिन कुछ ही देर में वे समझ गए कि यह बोली कुछ अलग है। बाद में पता चला कि उस बोली को स्थानीय भाषा में ‘कोरो’ कहते हैं। लंबे शोध के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि किसी जमाने में इस इलाके में कोरो खूब बोली जाती थी लेकिन अब दो-चार गांवों तक सिमट गई है। इसे बोलने वालों की संख्या हजार से भी कम है।
अक्टूबर 2010 के दूसरे सप्ताह में हमारे मित्र और देश के जाने माने पत्रकार अजीत अंजुम ने सोशल साइट फेशबुक पर भोजपुरी, बज्जिका और अंगिका के कुछ ऐसे शब्द डाले जो अब सामान्य प्रचलन में नहीं हैं लेकिन 20 साल पहले तक हमारे जैसे लोग भी उन शब्दों का भरपूर उपयोग किया करते थे। उसके बाद तो फेशबुक पर ऐसे शब्दों का तांता लग गया। जिसे जो याद था, वह डाला। लेकिन सवाल यह उठता है कि ये शब्द कब तक जिंदा रहेंगे? मेरी बात से बहुत से लोग सहमत होंगे कि मौजूदा पीढ़ी के साथ बहुत से शब्द गायब हो जाएंगे। स्वाभाविक रूप से जब शब्द समाप्त होते हैं तो बोलियां समाप्त होने लगती हैं। बोलियां समाप्त होती हैं तो भाषा पर संकट के बादल गहराते हैं।
...और जो लोग मेरी बात से सहमत न हों, उनके लिए यह वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित और विशलेषित आंकड़ा मौजूद है कि हर दूसरे सप्ताह दुनिया की अब तक ज्ञात करीब 7000 बोलियों में से कोई एक न एक काल का शिकार हो जाता है, उसका वजूद समाप्त हो जाता है। हिंदुस्तान के बारे में तो कहावत ही है कि यहां हर दस ‘कोस’ पर बोली बदल जाती है। अब जरा ‘कोस’ शब्द पर ही गौर कीजिए। यह दूरी की गणना का मापक है। कोई तीस-पैंतीस साल पहले जब मैं गांव में था तब दूरी सामान्य तौर पर कोस में ही मापी जाती थी लेकिन गांवों में भी अब कोस शब्द समाप्त हो रहा है और इसकी जगह ले ली है किलो मीटर ने। जानकारी के लिए बता दें कि एक कोस का मतलब होता है करीब 2.25 किलो मीटर। ‘कोस’ शब्द हिंदुस्तान में करीब तीन हजार साल से प्रचलित रहा है लेकिन अंग्रेजी ने इसे भी भूली-बिसरी राह पर ढ़केल दिया। ऐसा बहुत से शब्दों के साथ हुआ है।
वास्तव में हाल के तीस-चालीस सालों में भाषा के साथ जो खिलवाड़ हुआ है, वह बेहद दर्दनाक है। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ? इसके लिए हमें इतिहास में पीछे लौटना होगा। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जब हिंदुस्तान को गुलाम बनाया तब उनका मकसद केवल लूटपाट और अपने धर्म को स्थापित करना था। भाषा पर उस दौर में भी हमले हुए लेकिन वह हमला बौद्धिक नहीं था इसलिए नुकसान केवल इतना हुआ कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी का स्वरूप बदलने लगा। देवभाषा कही जाने वाली संस्कृत थोड़ी पिछड़ने लगी और हिंदी का सरलीकरण शुरु हो गया। चूंकि अहिंदी भाषी प्रदेशों में भी हिंदी को फैलाना था इसलिए हिंदी का सरल होना जरूरी भी था। लेखन में भी बोलचाल की हिंदी का प्रयोग शुरु हो गया। हिंदी के साथ उर्दू का प्रयोग शुरु हुअ लेकिन यह हिंदी के लिए श्रृंगारिक रूप से कुछ हद तक मददगार भी रहा।
इसके बाद आए अंगरेज। उन्होंने करीब 200 सालों तक हिंदुस्तान पर राज किया और इसे इंडिया बनाने की हर फितरत को अंजाम दिया। आज यह देश हिंदुस्तान कम और इंडिया ज्यादा है। अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से हमारी संस्कृति पर हमला किया। कहावत भी है कि किसी की संस्कृति को बदलना हो तो उसकी वेशभूषा और भाषा बदल दो! ...हमारा पायजाम कब बेलबॉटम और फिर जींस में तब्दील हो गया, पता ही नहीं चला! ...और हिंदी कब हिंगलिश में तब्दील होने लगा, भनक तक नहीं लगी। जब भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी और समाज हिंगलिश के रंग में रंगने लगा था। इसे आप छलात्कार भी कह सकते हैं।
शुुरुआत कॉन्वेंट स्कूल से
भाषा के साथ खिलवाड़ की शुरुआत सबसे पहले इस देश में कॉन्वेंट स्कूलों ने की। अंग्रेजों ने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए इस तरह के स्कूल खोले थे। जाते-जाते वे हमारे भीतर यह भावना भर गए कि हमें भी अंग्रेजों जैसा होना चाहिए। भावना प्रबल होती गई और देश में कॉन्वेंट स्कूलों की बहार आ गई। इन स्कूलों में पढ़ाने वालों में ज्यादातर वो लोग थे जिन्हें कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी और भाषाई रूप से न वे अंग्रेजी में पारंगत थे और न ही हिंदी में। ऐसे ही एक कॉन्वेंट स्कूल में मैं भी पढ़ा
हूं इसलिए हकीकत को अच्छी तरह से जानता हूं। ऐसे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ी ऐसी नस्ल निकलनी शुरु हुई जिसे हम सामान्य भाषा में अधकचरा कह सकते हैं। इसने अपनी सुविधा के लिए हिंदी और अंग्रेजी का घालमेल शुरु कर दिया।
बहुराष्टÑीय कंपनियों का हमला
इसी बीच विश्व बाजार खुला और आबादी की हमारी भीड़ ने बहुराष्टÑीय कंपनियों को आकर्षित किया। इन कंपनियों के ऐसे युवाओं को अपना निशाना बनाया जो भाषाई रूप से कंगाल है और अमेरिकी युवाओं की तरह खुल्ला हो जाना चाहता है। बहुराष्टÑीय कंपनियों ने विज्ञापन को अपना माध्यम बनाया और तेजी से फैल रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर करीब-करीब कब्जा कर लिया। लुभावने विज्ञापनों ने पूरी पीढ़ी को अपना मुरीद बना लिया। तब तक अखबारों में भाषा के साथ खिलवाड़ प्रारंभ नहीं हुआ था। अखबारों को जब विज्ञापन का यह बड़ा बाजार दिखा तो युवाओं को आकर्षित करने की कोशिशें शुरु हुई। लक्ष्य यह था कि बहुराष्टÑीय कंपनियों को लुभाया जाए। इसी क्रम में भाषा पर हमले शुरु हो गए। हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी की हेडिंग और अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल इसी का परिणाम है।
हालात बेहद नाजुक
मौजूदा दौर में ज्यादातर हिंदी अखबार केवल हिंदी के नहीं हैं। उन्हें आप भाषाई दोगलेपन का शिकार कह सकते हैं। मैंने पिछले पांच वर्षों के दौरान कम से कम दो सौ बिल्कुल युवा और नवागत पत्रकारों के साथ काम किया है या यूं कह लें कि उनके लेखन के अत्यंत निकट रहा हूं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उनमें से मुश्किल से तीन या चार ही ऐसे मिले जिन्हें मैं भाषाई तौर पर शुद्ध कह सकूं। भाषा विन्यास की बात तो बहुत दूर की बात है, उनके लेखन में मात्राओं की इतनी गलतियां होती हैं कि आप उनक मूल लेखन को अखबार में स्थान दे ही नहीं सकते। मुझे पत्रकारिता का वह दौर याद है जब मैं नईदुनिया में हुआ करता था। तब एक शब्द भी यदि अखबार में गलत छप जाता था तो अगले दिन तूफान जैसी स्थिति होती थी। वहां सरोजकुमार जी पत्रकारों को हिंदी पढ़ाया करते थे। अखबार भाषाई रूप से इतने सबल हुआ करते थे कि बहुत से लोग अखबार पढ़कर शुद्ध हिंदी लिखना सीखते थे। ...अब उसकी केवल भूली बिसरी यादें शेष हैं। भाषा के साथ छलात्कार जारी है!
विकास मिश्र
Friday, October 29, 2010
Sunday, June 28, 2009
किया धरा सब अपना ही है!
जून महीने का आखिरी सप्ताह आते-आते हम आप तो बेचैन हुए ही, आमतौर पर बेचैन न होने सरकार के भी हाथ पांव फूलने लगे। दरअसल दिल्ली में भी जब भीषण बिजली कटौती और पानी की कमी पैदा हो गई तो सरकार का बेचैन होना स्वाभाविक हो गया। ...लेकिन इस बेचैनी से न कुछ होने वाला है और न कुछ हुआ। सबने समवेत राग में कहा : मानसून लेट हो गया है! इस सारी समस्या के लिए वही यानी मानसून जिम्मेदार है। वह समय पर आ जाता तो देश को यह दिन नहीं देखना पड़ता। ...फिर दिल्ली जैसी जगह में बारह-बारह घंटे की कटौती नहीं होती और न ही गर्मी के कारण शिमला जैसी जगह में स्कूलों को बंद करना पड़ता! मानसून समय पर आ जाता तो वन्य अभ्यारण्यों में पशु प्यास से नहीं मरते और शहरों को बिजली देनी वाली पनबिजली परियोजनाएं सूखे का शिकार नहीं होतीं। मानसून पर आरोप बहुत से हैं और दुनिया का विधान है कि आरोपी को दंडित किया जाना चाहिए! ...लेकिन मानसून को आप दंडित करेंगे कैसे? सच्चाई तो यह है कि मानसून ने मनुष्य को ही दंडित करना शुरु कर दिया है। ...और यह वाजिब भी है। अपने कुकृत्यों को छिपाने के लिए हम भले ही मानसून को दोषी ठहरा लें लेकिन वास्तविकता यही है कि दोषी मानसून नहीं बल्कि हम ओैर आप हैं जनाब! इस धरती का चीरहरण हमने किया है, पेड़ पौधों को धड़ल्ले से हमने काटा है। कई नदियों को मौत के घाट हमने उतार दिया है और बाकी को तबाह करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। प्रकृति द्वारा सृजित सैकड़ों प्रजातियों का विनाश हमने किया है। इस पृथ्वी को कचरा घर बना दिया है। जब हमारे कृत्य ऐसे हैं तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ेगा ही! जब प्रकृति का संतुलन बिगड़ेगा तो मानसून समय पर आएगा कैसे?मुझे याद है बचपन का वह दिन जब सावन और भादो के महीने में बारिश से परेशान होकर मेरी मां अपने आंचल का किनोर बांध लेती थी और कहती थी कि भगवान को बांध दिया है...जब तक बारिश नहीं रुकेगी तब तक गांठ नहीं खोलूंगी! मां की उस आस्था को फलीभूत होते देखना हमारे लिए अचरजभरी बात थी! यह बात बहुत पुरानी नहीं है...यही कोई ३०-३५ साल पहले की कहानी सुना रहा हूं। ...मां अब होती तो फिर गठान बांधती और कहती...जब तक बारिश नहीं होगी तब तक गठान नहीं खोलूंगी!कितना बदल गया सबकुछ! इस साल मानसून लेट होने लगा तो कुछ मित्रों ने मेंढ़कों की शादी कराई! पता नहीं मेंढ़की की शादी से बारिश का क्या लेना-देना! ...हां इतना जरूर पता है कि मेंढ़कों की संख्या बड़ी तेजी से कम हो रही है। इन्हें भी समाप्त कर देने की कोई कम पहल हमने नहीं की है। अपने गांव की ही एक घटना सुना रहा हूं...सुनकर थोड़ा आश्चर्य होगा लेकिन है सोलह आने सच। ८० के दशक में अचानक देश के ग्रामीण हिस्सों में मेंढ़क पकडऩे और बेचने का कारोबार चल निकला। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि मेंढ़कों को पकड़ा क्यों जा रहा है। बाद में पता चला कि उनकी टांगें और शरीर के दूसरे हिस्से अलग करके विदेशों में भेजा जा रहा था। मेंढ़कों को कई देशों में स्वादिष्ट व्यंजन के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। जब सामाजिक संगठनों ने और पर्यावरण से जुड़े संगठनों ने हल्ला मचाया तब इस पर अंकुश लगा और मेंढ़कों का व्यापार बंद हुआ। पर्यावरण विज्ञानी मानते हैं कि मेढ़कों और बारिश का बड़ा पुराना रिस्ता है। कहने का मतलब है कि हम मनुष्यों ने पूरे पर्यावरण को हर तरह से क्षति पहुंचाई है और अब जब प्रकृति रुष्ट हो रही है तो हम भगवान से मन्नतें मांग रहे हैं और मेढ़कों की शादी करा रहे हैं। भाई मेरे भगवान की इस अनूठी रचना प्रकृति को नष्ट करने के पहले तो भगवान को याद करो! ध्यान रखिए!प्रकृति नष्ट होगी तो हम भी नहीं बचेंगे...!
विकास मिश्र
विकास मिश्र
Sunday, May 24, 2009
बेशर्मी की हद हो गई!
चुनाव परिणाम आने के बाद देश ने राहत की सांस ली थी कि बहुत दिनों बाद एक स्थिर सरकार की उम्मीद बंधी! यहां तक कि राजनीति में कांग्रेस के विरोधी भी इस बात को लेकर सुकून में थे कि अब क्षेत्रिय क्षत्रप कुछ शांत रहेंगे और सरकार को ब्लैकमेल नहीं कर पाएंगे। कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन नहीं होने के बावजूद जिस तरह से माया, मुलायम और लालू ने बिन मांगे समर्थन देने की घोषणा कर दी, उससे उम्मीद को बल मिला कि ब्लैकमेलरों का जमाना लद रहा है। ...लेकिन करुणानिधि ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया! यूपीए गठबंधन को लेकर कांग्रेस को भरोसा था कि जो साथ हैं, वे कुछ भी ऐसा नही करेंगे जिससे यूपीए को लेकर जनता के बीच गलत संदेश जाए। इसीलिए कांग्रेस ने गठबंधन के साथियों के बीच मंत्रीपद बंटबारे का एक फार्मुला तैयार किया ताकि किसी को कोई शिकायत नहीं रहे। दूसरे दल तो मान गए लेकिन करुणानिधि बिफर पड़े। सीधे तौर पर कुछ नहीं बोले लेकिन अपनी हरकतों से देश को बता दिया कि राजनीति में उनका सरोकार अपने परिवार को चमकाने के अलावा और कुछ नहीं है। उन्हें अपने कुनबे के सभी सदस्यों के लिए मलाईदार महकमा चाहिए! क्षेत्रवादी क्षुद्रता के शिकार तो वे काफी पहले से ही हैं। बड़े राजनीतिक ब्लैकमेलर की भूमिका भी उन्होंने अपने लिए तय कर ली। करुणानिधि के बेशर्म हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने कांग्रेस को तब ब्लैकमेल करने की कोशिा की है जब जनता ने लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और शिबू सोरेन जैसे लोगों को हैसियत बता दी है। लगता है अपने क्षेत्रों में थोड़ी बहुत सफलता पाने वालों ने लालू, पासवान और सोरेन की दुर्गति से कोई सीख नहीं ली है। यदि ऐसा होता तो करुणानिधि ब्लैकमेलिंग की हिम्मत नहीं करते। वैसे केवल करुणानिधि को ही दोषी क्यों ठहराएं? नेशनल कान्फ्रेंश के अब्दुल्ला पिता-पुत्र और ममता बैनर्जी भी कहां कम हैं? ममता बैनर्जी ने हालांकि खुले तौर पर कुछ भी नहीं कहा लेकिन यह बात तो सार्वजनिक हो ही गई कि रेल मंत्रालय पाने के लिए उन्होंने दबाव का इस्तेमाल किया। चूंकि पश्चिम बंगाल में ममता ने 'लाल किलेÓ को अभी-अभी क्षतिग्रस्त किया है इसलिए कांग्रेस उनकी हर बात मानने को तैयार है। कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में एक ऐसे सहयोगी की जरूरत है जो वहांं के लाल मिथक को तोड़ सके। यही कारण है कि ममता को बिना किसी परेशानी के रेल मंत्रालय मिल गया। गौर कीजिए कि ममता रेल मंत्रालय को लेकर ही ज्यादा उत्सुक क्यों थीं? दरअसल रेलवे एक ऐसा विभाग है जहां हर साल बड़ी संख्या में नौकरी की संभावनाएं मौजूद रहती हैं और वास्तविकता यही है कि जो मंत्री होता है, वह इन संभावनाओं का खूब दोहन भी करता है। रेल मंत्री अपनी मर्जी के मुताबिक अपने क्षेत्र में नई रेल गाडिय़ां और परियोजनाओं की स्थापना करता है जैसा कि रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव ने अपने जमाने में किया। ममता को मालूम है कि पश्चिम बंगाल में आने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान यह मंत्रालय उनके काम आ सकता है। अब सवाल पैदा होता है कि मनमुताबिक मंत्रालय मिलने के बाद ममता क्यों बिफर पड़ीं? दरअसल उन्हें यह डर सताने लगा कि कहीं बाद में कांग्रेस धोखा न कर दे और अपने सहयोगियों के लिए जो मलाईदार मंत्रालय वे चाह रही हैं वह न मिले! यदि ऐसा हो गया तो वे कुछ कर नहीं पाएंगी इसलिए उन्होंने यह कह दिया कि जब तक उनके सहयोगियों को मंत्रीपद नहीं मिल जाता तब तक वे अपना मंत्रालय नहीं संभालेंगी। वास्तव में यह दबाव की राजनीति ही है। कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि सबसे ज्यादा सीट जीतने के बावजूद उसे अपने सहयोगियों के साथ कहीं न कहीं समझौता करना पड़ रहा है। जरा सोचिए कि यदि मुलायमसिंह, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे लोग भी इस समय ब्लैकमेल करने की स्थिति में होते तो क्या होता! ऐसी स्थिति में इस देश के आम आदमी के मन में यह सवाल पैदा होना स्वाभाविक है कि क्या हमारे देश के नेता इतने स्वार्थी हो गए कि हर किसी को मलाईदार महकमा ही चाहिए? जितने भी नेता हैं, वे जनता के सामने यही कहते हैं कि राजनीति में देश सेवा के लिए आए हैं लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत लगती है। यदि विभागों का बंटबाड़ा प्रधानमंत्री केअधिकार क्षेत्र की बात है तो किसी भी सहयोगी दल को उन्हें ब्लैकमेल करने का अधिकार नहीं होना चाहिए और होना तो यह चाहिए कि कोई नेता यदि इस तरह की ब्लैकमेल की राजनीति करे तो प्रधानमंत्री को साफ शब्दों में कह देना चाहिए कि अपनी औकात में रहो अन्यथा देश की जनता को सबकुछ साफ-साफ बता दिया जाएगा। ...लेकिन किसी भी प्रधानमंत्री से ऐसी हिम्मत की केवल कल्पना की जा सकती है। गठजोड़ की राजनीति में ब्लैकमेल हो जाना मजबूरी है। देश ऐसी मजबूरी से अभी तक पूरी तरह उबरा नहीं है। ...तो बड़ा सवाल यह है कि क्या किया जाना चाहिए? राजनीति की अपनी मजबूरी हो सकती है लेकिन जनता चाहे तो इस तरह के ब्लैकमेल की राजनीति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकती है। कल्पना कीजिए कि देश भर से यदि एक लाख लोग किसी ब्लैकमेलर राजनेता को धिक्कार भरी चिठ्ठी भेजते हैं तो उस पर कुछ न कुछ तो असर होगा ही। अभी चूंकि हर ऐसे ब्लैकमेलर को यह पता होता है कि जनता की ओर से कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं होगी और अगला चुनाव आने तक जनता शायद उनकी हरकतों को भूल चुकी होगी, इसीलिए वे बेशर्मी के साथ मलाईदार महकमा लूट लेना चाहते हैं। जाहिर है कि इस तरह की राजनीति का चौतरफा विरोध होना चाहिए। राजनेताओं से कहा जाना चाहिए कि अपने स्वार्थ की आग में देश को मत जलाईए!
Sunday, May 17, 2009
हर आतंक का यही हश्र
श्रीलंकाई सेना की ओर से खबर है कि लिट्टे प्रमुख और दुनिया के दुर्दांत आतंकवादियों में शुमार किए जाने वाले प्रभाकरण ने अपने करीबी आतंकवादियों के साथ खुदकुशी कर ली है। हालांकि अभी यह केवल आशंका है, कुछ प्रमाण मिलने के बाद ही पुख्ता तौर पर खबर को दुनिया स्वीकार करेगी। ...लेकिन इस बात में कोई शंका नहीं कि श्रीलंकाई सेना ने गजब का साहस दिखाया है और लिट्टे के आतंकवाद को मटियामेट करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा है। उसने लिट्टे के गढ़ पर करीब-करीब फतह कर लिया है। लिट्टे का साम्राज्य खत्म हो चुका है। अब इस विषय पर विचार करने का कोई मतलब नहीं है कि लिट्टे कैसे पनपा और उसने इतना खूंखार रूप कैसे ग्रहण कर लिया। इस बात पर भी विचार करने का कोई मतलब नहीं है कि किस-किस ने उसकी मदद की! मुद्दे की बात है कि लिट्टे का जा हश्र आज हुआ है, वह कुछ समय पहले भी हो सकता था लेकिन श्रीलंकाई राजनीति में साहस और दृढ़ता की कमी ने लिट्टे के लिए संजीवनी का काम किया। राजनीति जब दृढ़प्रतिज्ञ हो गई तो सेना ने वह काम कर दिखाया जिसकी शक्ति उसके पास हमेशा ही थी। अब दूसरे उदाहरण तालीबान और अलकायदा पर गौर कीजिए। अफगानिस्तान में सोवियत रूस के खिलाफ तालीबान नाम के राक्षस को अमेरिका ने पैदा किया। यही राक्षस जब अमेरिका को ही अपने क्रूर पंजे दिखाने लगा तो अमेरिका बिफर पड़ा। अमेरिका ने तालीबान और अलकायदा को नष्ट करने के लिए बड़ी पहल की लेकिन यह पहल पूरी तरह कामयाब होती हुई नजर नहीं आई क्योंकि तालीबान को पाकिस्तान ने गुपचुप तरीके से समर्थन दे दिया। हालांकि पहले इस सच से पाकिस्तान इनकार करता रहा है लेकिन अब वहां के राष्ट्रपति जरदारी ने खुद स्वीकार किया है कि तालीबान को पालने पोसने में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की भूमिका है। यह बात वे तब कह रहे हैं जब तालीबान ने पाकिस्तान को ही चुनौती देनी शुरु कर दी। अब खबर यह भी आ रही है कि जिन इलाकों पर तालीबान ने कब्जा कर लिया है, वहां पाकिस्तान के कुछ न्यूक्लियर ठिकाने भी हैं और पाक को चिंता सता रही है कि न्यूक्लियर हथियार कहीं तालीबान के हाथ न लग जाएं। इसी चिंता से मजबूर होकर पाकिस्तानी हुक्मरानों को तालीबान के खिलाफ कार्रवाई शुरु करनी पड़ी। सैकड़ों आतंकवादी मारे जा चुके हैं और यदि पाकिस्तान ने यही रवैया अपनाए रखा तो अमेरिका उसके साथ मिलकर तालीबान को नष्ट करने में कामयाब हो सकता है। तालीबान को खत्म करना कोई बहुत आसमानी-सुल्तानी काम नहीं है। तालीबान कितना भी बड़ा आतंकवादी संगठन हो, उसे अकेले पाकिस्तानी सेना ही न केवल परास्त कर सकती है बल्कि नष्ट भी कर सकती है। कहने का मतलब यह है कि यदि शासन सोच ले तो किसी भी आतंकवाद को समाप्त करना संभव है। भारत में ही पंजाब का आतंकवाद बहुत से लोगों को अभी तक याद होगा। जिस दौर में वहां आतंकवाद अपने चरम पर था तब कोई सपने में भी नहीं सोचता था कि यह कभी समाप्त होगा लेकिन पंजाब में आतंकवाद समाप्त हुआ और देश ने चैन की सांस ली। आतंकवाद के इतिहास को उठाकर देखें तो साफ हो जाता है कि कहीं भी आतंकवाद पनपता है तो उसके पीछे किसी न किसी रूप में राष्ट्र या राज्य की भूल होती है या किसी अन्य राष्ट्र का समर्थन होता है। आतंकवाद अकेले कभी नहीं पनपता है। और दूसरी बात यह है कि आतंकवाद का स्वरूप चाहे कितना भी बड़ा हो, वह चिरस्थायी नहीं होता है। वक्त आतंकवाद को तबाह कर देता है। हर आतंकवाद कभी न कभी समाप्त होता ही है। ....तो क्या आतंकवाद से यह लड़ाई वक्त के भरोसे छोड़ दी जाए? बिल्कुल नहीं। वक्त भी उन्हीं का साथ देता है जो पहल करते हैं। रावण के शासनकाल में आतंक का बोलबाला था। रावण से लडऩे की ताकत किसी में नहीं थी लेकिन ऋषि मुनियों ने हार नहीं मानी और जनचेतना जागृत करते रहे। राम को युद्ध प्रेरणा देने से लेकर रावण को सर्वनाश तक पहुंचाने में ऋषि मुनियों की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रही। मौजूदा दौर में ऋषि-मुनि का अर्थ है सत्य की राह पर चलने वाले लोग। समाज में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है। ...लेकिन विडंबना है कि हम अपने ऐसे अतीत से कोई प्रेरणा नहीं ले रहे हैं और आतंकवाद के खिलाफ कोई ऐसा जनमानस नहीं बन रहा है जो सरकार को कड़ी कार्रवाई के लिए बाध्य कर दे। बल्कि समाज में जो उद्वेलित हो रहे हैं वे एक आतंक के खिलाफ दूसरी तरह के आतंक की पैरोकारी करते हैं। यह कहावत अपनी जगह सही हो सकती है कि लोहे को लोहा ही काटता है लेकिन आतंक की मौजूदा कहानी में इस कहावत को फिट करना शायद भूल होगी। दरअसल रिस्पॉडिंग टेरोरिज्य की चाह पैदा होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि सरकार आतंकवाद के मूल कारणों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती और पूरे मसले को राजनीति नजरिए से देखती है। हमारी सरकार का यही रवैया हिंदुस्तान में आतंकवाद को बल प्रदान कर रहा है। वास्तव में एक बार सरकार यदि सोच ले कि आतंकवाद के फन को कुचलना है तो यह कोई असंभव काम नहीं है। सख्ती शासन का एक प्रमुख अस्त्र होता है और देश हित में उससे परहेज नहीं किया जाना चाहिए। श्रीलंका जैसे छोटे राष्ट्र ने जो हिम्मत दिखाई है, वैसी ही हिम्मत यदि हिंदुस्तान भी दिखा दे और किसी की परवाह न करे तो आतंकवाद को नष्ट किया जा सकता है। उम्मीद करें कि बहुमत के साथ सत्ता में लौटी कांग्रेस इस तरह की हिम्मत जल्दी ही दिखाएगी।
Tuesday, May 12, 2009
मर्ज उनका परेशान हम
बड़ी पुरानी कहावत है कि आपका पड़ोसी यदि दुखी है तो आप सुकून में नहीं रह सकते। हिंदुस्तान पर यह कहावत पूरी तरह फिट बैठती है। हमारा हर पड़ोसी किसी न किसी तरह के गंभीर संकट से गुजर रहा है और निश्चय ही भारत पर इसका बुरा असर भी पड़ रहा है। चिंताजनक और आश्चर्य की बात है कि इन सारे प्रकरणों में भारत की भूमिका सार्थक और सतर्क दिखाई नहीं दे रही है। चलिए पहले पड़ोसियों की समस्याओं पर नजर डालते हैं। पहले क्रम पर हम पाकिस्तान को रख सकते हैं जो फिलहाल बुरी तरह आतंकवाद का खुद शिकार हो चुका है और इसका खामियाजा भी भुगत रहा है। अफगानिस्तान को जर्जर करने वाले जिस तालीबान को उसने पाला पोसा और तंदुरुस्त बनाया, वही तालीबान उसकी धरती पर न केवल अपनी जड़ें जमा चुका है बल्कि पाकिस्तानी फौज तक से लोहा ले रहा है। वास्तविक स्थिति यही है कि पाकिस्तान इस वक्त सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है और उसका वजूद खतरे में पड़ गया है। हालांकि तालीबान से लेकर दूसरे सभी आतंकवादी समूहों को पालने-पोसने के पीछे पाकिस्तान का मंसूबा यही रहा कि इन आतंकवादियों के माध्यम से वह भारत की धरती पर तबाही का मंजर पैदा करे। सीधे रूप से भले ही पाकिस्तान सरकार ने कुछ नहीं किया हो लेकिन उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई की करतूत सामने आ चुकी है। पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और पाकिस्तानी सेना के संबंध आतंकवादियों से रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय संसद पर हमले का मामला हो, मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट हो या फिर ताज, नरीमन बिल्डिंग या सीएसटी पर हमला, सभी में पाकिस्तानी हाथ थे लेकिन हिंदुस्तान ने उन हाथों को मरोडऩे की कभी कोशिश नहीं की। दरअसल पाकिस्तान के संदर्भ में भारत का रवैया हमेशा ढुलमुल ही रहा है। १९७१ के बाद उसे कभी भी हमने उसकी औकात दिखाने की कोशिश नहीं की। हर वक्त पर भारत ने कमजोरी का परिचय दिया। भारतीय संसद पर हमले के दोषी अफजल को अभी भी फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। मुंबई पर हमले के मामले में हम पाकिस्तान का कुछ हीं बिगाड़ सके! यदि हमने उसी वक्त पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला बोल दिया होता और आतंकवादियों का आसरा नष्ट कर दिया होता तो आज स्थिति बिल्कुल अलग होती। ...लेकिन हम ऐसा कुछ नहीं कर पाए। केवल जुबानी जमाखर्च करते रहे। दूसरे पड़ोसी और कभी पाकिस्तान का हिस्सा रहे बांग्लादेश की स्थिति से हम सभी परिचित हैं। जहां की बहुसंख्यक आबादी बंगला बोलती है और जिसे हिंदुस्तान ने आजादी दिलाई वह हमारे लिए खतरा बन चुका है। आतंकवादियों को बांग्लादेश से भी मदद मिलती है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। सवाल यह उठता है कि भारत की बदौलत आजादी प्राप्त करने वाले बांग्लादेश को तो तो भारत का शुक्रगुजार होना चाहिए था, फिर ऐसा क्या हो गया कि वह हमारा शत्रु बन बैठा? इसका जवाब सीधे तौर पर किसी के पास नहीं है लेकिन यह तो स्पष्ट होता ही है कि बांग्लादेश के संदर्भ में कहीं न कहीं हमारी विदेश नीति में चूक हुई। बांग्लादेश के संदर्भ में एक बात और ध्यान देने योग्य है। हमारा यह पड़ोसी आर्थिक विपन्नता का शिकार है और यही कारण है कि लाखों की संख्या में बांग्लादेशी घुसपैठिए हमारे देश में आ चुके हैं। दुर्भाग्य है कि हिंदुस्तान के राजनेता इस मामले में भी राजनीति करते हैं, उन्हें वोट बैंक नजर आता है और वे बांग्लादेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात तक नहीं करते हैं। ये घुसपैठिए पूरे हिंदुस्तान में फैल चुके हैं। बहुतों के तो राशनकार्ड और वोटर आईडी कार्ड तक बन चुके हैं। इन बाग्लादेशी घुसपैठियों के बल पर कई राजनेता भारतीय राजनीति में अपनी रोटी भी सेंक रहे हैं। तीसरा पड़ोसी चीन जरा अलग किस्म का है। उसकी खुद की कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन हमारे लिए वह बड़ी समस्याएं पैदा कर रहा है। भारतीय बाजार में जितना कचरा उसने भरा है, उतना दुनिया के दूसरे सभी देश मिलकर भी नहीं भर पाए हैं। भारतीय बाजार को उसने बुरी तरह प्रभावित किया है। उसके घटिया माल पर दुनिया के विकसित देशों ने प्रतिबंध लगा दिया लेकिन हिंदुस्तान का रवैया इस मामले में कभी सख्त नहीं रहा। इसके लिए हम अपनी सरकारों को नहीं तो और किसे दोषी ठहराएं? चौथे पड़ोसी श्रीलंका में लिट्टे और सरकार के बीच का संघर्ष सीधे तौर पर हमें प्रभावित कर रहा है और भारतीय राजनीति में उसका भूचाल भी इस चुनाव में महसूस किया गया। इसी संघर्ष के कारण हम अपना एक प्रधानमंत्री भी खो चुके हैं। ...और अब मामला नेपाल का। बस कुछ साल पहले तक नेपाल हमारा भरोसेमंद साथी था लेकिन माओवादियों के सत्ता में आते ही भारत से रिस्ते सामान्य नहीं रह गए हैं। नेपाली माओवादी जाहिर तौर पर चीन के प्रभाव में हैं और भारत के लिए यह खतरे की बड़ी घंटी है। भारत और नेपाल के बीच इतनी बड़ी खुूली सीमा है कि वहां किसी तरह का अंकुश लगा पाना लगभग असंभव जैसा काम है। आज भी आतंकवादियों और उग्रवादियों को मिलने वाले हथियार की बड़ी खेप नेपाल के रास्ते ही भारत पहुंचती है। ...तो सवाल उठता है कि भारत क्या करे? इसका जवाब यह है कि सभी पड़ोसियों के संदर्भ में भारत की एक स्थाई और दूरगामी नीति होनी चाहिए। ऐसी नीति के लिए जरूरी है कि देश में राजनीतिक स्थिरता हो। कम से कम विदेश नीति के संबंध में सभी राजनीतिक दलों के बीच मतैक्य हो। दुर्भाग्य से न तो राजनीतिक स्थिरता है और न ही मतैक्य। सभी दल वोट की राजनीति में लगे हैं...देश की फिक्र किसी को नहीं!
Monday, April 13, 2009
पानी के बगैर भयावह तस्वीर
एक पुरानी कहावत है...बिन पानी सब सून! जिस किसी ने भी इस कहावत की रचना की होगी, वह बड़ा दूरदर्शी रहा होगा। उसे इस बात की आशंका रही होगी कि मानव इस दुनिया को बहुत जल्दी तबाह कर देगा और तब पानी की मारामारी मचेगी। सहज रूप से उपलब्ध पानी खत्म हो जाएगा तो जिंदगी की कल्पना मुश्किल होगी। इसीलिए बनी होगी यह कहावत! यह कहावत हर कोई जानता है लेकिन किसी ने भी शायद इसका अर्थ समझने की कोशिश नहीं की। मानव ने जंगल उजाड़ दिए, नदियों को कचरा घर बना दिया। उदï्गम स्थलों को तबाह कर दिया। लाखों की संख्या में तालाब मर गए और नदियों का प्रवाह खत्म होने लगा। जो लोग आज पचास साल के हैं, उन्होंने अपने बचपन की भरी गर्मियों में भी गंगा और नर्मदा जैसी नदियों में भरपूर और स्वच्छ निर्मल पानी बहते देखा होगा लेकिन आज की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। गर्मी में गंगा की धारा कई जगह दिखती नहीं है और नर्मदा में इतना कम पानी हो जाता है कि पाट सिकुड़ जाते हैं। इनकी सहायक नदियों में तो प्रवाह बस बारिश के दिनों में ही देखने को मिलता है, सर्दियों में प्रवाह ठहर जाता है और गर्मियों में ये नदियां लगभग सूख जाती हैं। जंगलों के कटने, तालाबों के मरने और नदियों के आहत होने की वजह से भूजल स्तर लगातार नीचे जा रहा है। बीस साल पहले जिन क्षेत्रों में डेढ़ सौ फीट की गहराई में अच्छा पानी मिल जाता था, वहां अब पानी ढ़ाई तीन सौ फीट की गहराई में ही नसीब होता है। मध्यप्रदेश के कई शहरों में पांच से छह सौ फीट की खुदाई के बाद भी पानी मिलना मुश्किल ही होता है। कहने का आशय यह है कि हमारी कारगुजारियों की वजह से पानी लगातार हमसे दूर होता जा रहा है। मध्यप्रदेश के न केवल कई शहर बल्कि ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में भयंकर जलसंकट व्याप्त है। जिस उज्जैन शहर में कभी पूण्य सलीला क्षिप्रा बहा करती थी, वहां पानी के लिए हाहाकार मचा है। लोगों का तीन-चार दिन में एक बार पानी नसीब हो रहा है। प्रकृति के प्रति हमारी कारगुजारियों का ही नतीजा है कि अब पानी बोतलबंद होकर बिक रहा है...और खूब बिक रहा है। पचास साल पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि पानी में बोतलों में भरकर बिकेगा! बोतलबंद पानी की कीमत अभी दूध के मुकाबले आधी है लेकिन अब यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि अगले पचास सालों में पानी की कीमत शायद दूध से भी ज्यादा हो जाए! पानी की इस कमी के कारण हमारा पूरा जनजीवन प्रभावित हो रहा है। सदियों से छककर होली खेलने वाले पहले सूखी होली और अब केवल तिलक होली के करीब आ गए। सीधे शब्दों में कहें तो पानी की कमी ने रंगों के त्यौहार को औपचारिकता में बदल दिया। यदि हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ नहीं किया होता शायद यह दिन हमें नहीं देखना पड़ता। मजबूरी भरी एक कहावत है कि जब जागो तभी सवेरा। चलिए इस कहावत को भी स्वीकार कर लें तो अभी से पानी की बचत और पर्यावरण की सेहत सुधारने में हम सभी को जुट जाना चाहिए। जंगलों के प्रति हमारा दर्दनाक व्यवहार खत्म होना चाहिए। भूमि के जलस्तर को सहेजने में इनकी बड़ी भूमिका होती है। अपनी जिंदगी बचानी है तो नदियों को भी बचाना होगी। बड़ी विचित्र बात है कि मानव दूसरे ग्रहों पर पानी की मौजूदगी की संभावना तलाश रहा है ताकि वहां जीवन बसाने के बारे में सोचा जा सके और दूसरी ओर पृथ्वी को बिन पानी करने पर तुला हुआ है। वाकई स्थिति बहुत गंभीर है। विकास मिश्र
चुनाव में विद्वानों की पूछ क्यों नहीं होती
बड़ी तेजी से खबरें आ रही हैं कि स्लमडॉग मीलिेनियर के बाल कलाकार अब राजनीति के मैदान में चुनावी उम्मीदवारों के मंच की शोभा बढ़ाएंगे। जो बच्चे ठीक से चुनाव का अर्थ भी नहीं जानते, वे लोगों के प्रचार करेंगे कि फलाने उम्मीदवार को वोट दीजिए! यह कहना कठिन है कि लोग फिल्मी बन चुके इन बच्चों की बातें कितनी मानेंगे। बहरहाल मुद्दा यह है कि क्या राजनीतिक दलों का या उम्मीदवारों का यह चुनावी रवैया ठीक है? कोई भी समझदार आदमी इस तरह के रवैये को चुनावी स्टंड ही कहेगा। हर चुनाव में राजनीतिक दल इस तरह का कोई न कोई करतब दिखाते हैं और जनता इनकी असलीयर से वाकिफ है इसलिए कोई बहुत बड़ा फर्क भी नहीं पड़ता है। हो सकता है कि इन बच्चों को जो राजनीतिक दल अपने मंच पर ले जाएगा उसके उम्मीदवार को इन बच्चों के परिवार,रिस्तेदार या पड़ोसियों का वोट मिल जाए लेकिन बच्चों की बातों में आकर कोई वोट नहीं डालेगा। हां, इन बच्चों को देखने के लिए जगह-जगह भीड़ जरूर उमड़ेगी और नेताओं को शायद इसी की जरूरत भी है क्योंकि नेताओं को सुनने अब कोई आम आदमी नहीं जाता। बड़े नेताओंं को देखने के लिए लोग जरूर चले जाते हैं। कल्पना कीजिए कि ये बच्चे जिस मंच पर जाएं, उसी मंच पर यह सवाल खड़ा कर दें कि नेताजी ने तंग बस्तियों के लिए क्या किया? ...तो क्या होगा? बहरहाल इस तरह का सवाल केवल काल्पनिक है क्योंकि बच्चों को मंच पर बैठने और प्रचार करने के लिए नेताजी की ओर से पैसे मिलेंगे। इसलिए कोई भी बच्चा इस तरह का सवाल नहीं करेगा। हां, हम और आप यह सवाल जरूर पूछ सकते हैं और राजनीतिक दलों के पास इस तरह के सवालों का कोई जवाब है भी नहीं। नेताजी को भी मालूम है और हम आप भी जानते हैं कि देश के तमाम बड़े शहरों में तंग बस्तियों या झुग्गियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है और वहा रहने वालों का जीवन अत्यंत कठिन होता है। ये तंग बस्तियां वोट का खजाना होती हैं और प्रलोभन यहां काफी करता है....वोट एकमुश्त गिरते हैं। खैर, बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी राजनीतिक दल ने आयआयएम या आईआईटी के किसी टॉपर से कभी कहा कि चलिए जनाब हमारा प्रचार करिए! कभी नहीं कहा! क्या किसी वैज्ञानिक से किसी राजनीतिक दल ने इसी तरह का आग्रह किया? नहीं किया! राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना चाहिए कि पढ़े लिखे और विचारवान लोगों को ये दल चुनाव मैदान में क्यों नहीं उतारते या उनसे क्यों नहीं कहते कि हमारे पक्ष में जनता के सामने चलिए। इसलिए नहीं कहते क्योंकि अच्छे लोगों की भरमार हो गई तो राजनीति में हाईकमान की नहीं चलेगी। विचारवान लोग सवाल सामने रखते हैं और किसी भी दल में सवालों का सामना करने की ताकत नहीं बची है। सबको मुंह सिले लोग चाहिए जो केवल हाईकमान की बात मानें। जिनके लिए सबसे पहले क्रम पर उनकी पार्टी हो। दूसरी बात यह भी है कि विद्वानों का स्टारडम नहीं होता। राजनीतिक दल जानते हैं कि इस देश में स्टारडम की महत्ता है इसलिए वे फिल्मी सितारोंं को चुनाव मैदान में उतार देते हैं। उन्हें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि ये फिल्मी सितारे पर्दे से बाहर जनता के काम के नहीं हैं। जिस संजय दत्त को लखनऊ की गलियां नहीं मालूम, उन्हें लखनऊ से चुनाव लड़ाने की बात की जा रही है। गीत गाते-गाते मनोज तिवारी सांसद का चुुनाव लडऩे निकल रहे हैं। दरअसल राजनीतिक दलों ने चुनाव को मजाक बना दिया है और प्रजातंत्र के वैधानिक सहृदयता को तार-तार कर रहे हैं। राजनीति की यह गिरोहबंदी इस देश को तबाह कर देगी। सतर्क रहने की जरूरत है।विकास मिश्र
Subscribe to:
Posts (Atom)